About Temple

भितरवार से कुछ किलोमीटर दूर स्थित प्राचीन धूमेश्वर महादेव मंदिर अनेकों ऐतिहासिक गाथायें संजोए हुए हैं। पिंडी का उदगम सिंध नदी से होना बताया जाता है। इतिहासकारों का ऐसा मानना है, कि मंदिर में विराजित भगवान शिव की जो पिंडी है, वह नदी के अंदर से निकली है।
मध्य प्रदेश में ग्वालियर जिला मुख्यालय से केवल 70 किमी की दूरी पर बना धूमेश्वर मंदिर सदा से ही लाखों लोगों की आस्था का केंद्र रहा है। मंदिर में विराजित विशाल शिवलिंग बहुत ही अद्भुत है। हजारों वर्ष पुराने इस मंदिर की कलात्मकता आज भी देखने लायक है। बेहतर कारीगरी और वास्तुकला से बनाया गया महादेव जी का यह मंदिर आज भी पहले की तरह ही सुन्दर लगता है।
यहाँ वर्ष भर दूर-दूर से भक्तगण धूमेश्वर धाम पर दर्शन करने के लिए पहुंचते हैं। केवल ग्वालियर-चंबल संभाग ही नहीं, अपितु देश के अनेक राज्यों से भी श्रद्धालु अपनी मनोकाना पूर्ति हेतु यहां दर्शन व पूजन करने आते हैं। श्रावण मास और सोमवती अमावस्या जैसे अवसरों पर मंदिर में श्रद्धालुओं की अपार भीड़ उमड़ती है। महाशिवरात्रि पर्व पर तो मंदिर पर विशाल मेले का आयोजन किया जाता है।
क्यों जाना जाता है धूमेश्वर के नाम से
सिन्ध नदी अपने प्रवास के दौरान जब डबरा-भितरवार मार्ग के समीप से हो कर गुजरती है। यहाँ पर चट्टानी क्षेत्र होने की वजह से सिंध नदी का जल काफी सँकरे रास्ते से होकर बड़ी तेज गति से झरने के रूप में नीचे गिरता है। इस कारण से तुषार उठता है मतलब तेज गति से जल धारा के चट्टान पर गिरने से जलकण उत्पन्न होते है, इसे ही खड़ी बोली में पहले के समय में धूम कहा जाता था।
मंदिर के गर्भगृह में विराजमान शिवलिंग सिंध नदी के गर्भ से निकला था। चूँकि सिंध नदी का जल काफी ऊंचाई से जलप्रपात के रूप में नीचे गिरता है, इसीलिए जल के नीचे गिरने से धुआँ जैसा उठता है। और ऐसा लगता है जैसे यह विशाल झरना महादेव जी का अभिषेक अनंतकाल से स्वयं ही करता आ रहा हो। अतः ऊंचाई से पानी गिरने के कारण इस शिवलिंग का नाम धूमेश्वर महादेव पड़ा।
वहीं दूसरी और एक मान्यता यह भी है कि धौम्य नामक महर्षि की भी जनश्रुतियाँ इस मन्दिर के नामकरण के साथ जुडी हुई हैं।
मंदिर का इतिहास
इतिहासकारों का मत है कि यह मंदिर हजारों साल पुराना है, जिसका पुनर्निर्माण तथा जीर्णोद्धार अलग-अलग समय पर अनेक राजवंशों द्वारा कराया जाता रहा है।
मंदिर के महंत व महामंडलेश्वर श्री श्री 1008 अनिरुद्ध वन जी महाराज बताते हैं, कि यह मंदिर पहले नागवंशीय राजाओं के समय में बनाया गया था। धूमेश्वर महादेव मन्दिर प्राचीन समय में कालप्रियनाथ के नाम से बनवाया गया था।
क्रूर इस्लामी आक्रान्ता दिल्ली सल्तनत के नायब-ए-मामलिकत बहाउद्दीन गयासुद्दीन बलबन ने तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में नरवर और ग्वालियर पर किये गए आक्रमण के समय इसको ध्वस्त कर दिया। फिर ओरछा नरेश वीर सिंह देव (Raja Veer Singh Bundela Of Orchha) ने बाद में अपने शासनकाल (सन 1605-1627) के दौरान धूमेश्वर मंदिर का दुबारा निर्माण कराया।
परन्तु 17वीं शताब्दी के आखिरी दशक में औरंगजेब के आक्रमण में यह मन्दिर, फिर इस्लामी क्रूरता का शिकार हुआ। इसके बाद कुछ सालों तक यह इसी तरह भग्नावस्था में पड़ा रहा, परन्तु 18वीं शताब्दी में मराठा सैन्याधिपति महायोद्धा श्रीमंत महाराज माधवराव (उपाख्य महादजी शिन्दे) के नेत्तृत्व में बुझे हुए हिन्दू जनमानस में हिन्दुत्त्व की ज्वाला पुनः प्रदीप्त हुई, और हिन्दुत्त्व का पुनर्रुद्धार इस क्षेत्र में हुआ तथा हिन्दू समाज में नवीन जनचेतना प्रस्फुटित हुई। इसके उपरान्त इस खण्डित पड़े हुए धूमेश्वर महादेव मन्दिर का पुनः पुनर्निर्माण कराया गया।
19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ग्वालियर महाराज श्रीमंत जयाजीराव सिंधिया ने मन्दिर को भव्य स्वरूप प्रदान किया। और इसके बाद के राजाओं श्रीमंत माधव महाराज एवं श्रीमंत जीवाजीराव सिंधिया के शासनकाल में भी ग्वालियर रियासत से धूमेश्वर मन्दिर को यथोचित संरक्षण प्राप्त होता रहा।
श्रीमंत सिंधिया के समय में सन 1901 में इसकी सेंसस रिपोर्ट बनवाई गई थी, तब यहाँ की कुल जनसंख्या मात्र 16 लोगों की थी। जिसमें 5 महिलाएँ और 11 पुरुष थे। सन 1908 में ग्वालियर रियासत के प्रकाशित हुए राजपत्र (गजेट) में भी मन्दिर का उल्लेख है। ग्वालियर के अन्तिम महाराज श्रीमंत जीवाजीराव सिंधिया जी ने सन 1936 में शासनसूत्र सम्हालते ही एक बार फिर धूमेश्वर महादेव मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया।
इस मन्दिर के निर्माण में तात्कालिक अन्तर्ग्रथन तकनीक का उपयोग किया गया है। भूमि से इसकी ऊँचाई लगभग 35 फीट है, चौड़ाई लगभग 20 फीट एवं लम्बाई लगभग 50 फीट है। यह प्राचीन भारतीय वास्तुकला का अद्भुत उदहारण है। संस्कृत के महान विद्वान् भवभूति ने भी इस मन्दिर का उल्लेख किया है।